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आधुनिक युग में मनुष्यों ने अपनी बुद्धि और शक्ति के माध्यम से विज्ञान के नए आविष्कारों से प्रकृति की शक्तियों पर नियंत्रण हासिल कर लिया है। हालाँकि, दुनिया पर विजय पाने का दावा करने के बावजूद, मनुष्य स्वयं को समझने और अपनी इच्छाओं और बुराइयों पर काबू पाने में विफल रहा है। प्रगति की चाह ने नैतिक मूल्यों की उपेक्षा को जन्म दिया है। कबीर ने अपनी कविताओं में इस्लाम एवं हिंदू धर्म की नकारात्मक परंपराओं की आलोचना की। सभी मनुष्य समान हैं और उनमें कोई छोटा या बड़ा भेद नहीं है। उन्होंने जाति व्यवस्था और सामाजिक असमानता की आलोचना की। उन्होंने गरीबों के शोषण के खिलाफ चेतावनी दी और माना कि जो लोग दूसरों को नुकसान पहुंचाते हैं, उन्हें अंततः परिणाम खुद ही भुगतने होंगे। कबीर मानवता के प्रति अपनी भक्ति के माध्यम से समाज में क्रांति लाना चाहते थे और मौलवी-पण्डित और शासक वर्ग की भ्रष्ट प्रथाओं के खिलाफ बोलते थे। उन्होंने धार्मिक मतभेदों से परे देखने और आध्यात्मिकता के वास्तविक सार को देखने की आवश्यकता पर जोर दिया। कबीर ने लोगों को सत्य से सीधा संबंध स्थापित करने और झूठे लोगों के बहकावे में न आने के लिए प्रोत्साहित किया। कबीर का मुख्य लक्ष्य लोगों के बीच एकता और सद्भाव लाना था। कबीर की शिक्षाएँ लोगों को ईमानदारी का जीवन जीने, नैतिक रूप से धन संचय करने और प्रेम, करुणा और सेवा की शक्ति को पहचानने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। कबीर के शब्द लोगों को अपने कार्यों के प्रति सचेत रहने और बेहतर जीवन के लिए प्रयास करने की याद दिलाते हैं।
मुख्य शब्द : विज्ञान, संसार, शक्ति, शोषण, स्वार्थ, कर्मकाण्ड, परमात्मा, नैतिक मूल्य, प्रेम, आत्मज्ञान।
वर्तमान युग विज्ञान की चरम उपलब्धियों का युग है। मानव अपने बुद्धि-बल से प्रकृति की शक्तियों को नियन्त्रित करने में प्रायः सक्षम हो गया है। उसने शारीरिक श्रम और मानसिक चिंतन करने के लिए मशीनें एवं कृत्रिम बुद्धिमत्ता का आविष्कार कर लिया है। वह किसी भी शक्ति के आगे अपने को निरीह, दीन-हीन, अक्षम मानने को तैयार नहीं है। मनुष्य चाहे दुनिया जीतने का दावा करें, लेकिन स्वयं को न समझ पाया है और न ही अपने स्वार्थ, तृष्णा, अहंकार, घृणा, काम, क्रोध, मोह को जीत पाया है। इस नई दुनिया में एक ओर अमीर वर्ग है जिसे सभी सुविधाएं उपलब्ध है तो दूसरी ओर रोटी को तरसते लोग है जो ऊपर वाले वर्ग में शामिल होने के लिए छटपटा रहे हैं अथवा जीवन को बिना किसी बन्धन के, बिना दायित्व के, बिना सिद्धांत के, बिना मूल्यों के जीना चाहते हैं। इसलिए जल्दी तरक्की पाने की इस दौड़ में नैतिक मूल्यों की उपेक्षा होने लगी है। यूरिया से बना दूध, दूध, अरारोट व फार्मलीन से बना पनीर, वनस्पति घी अथवा रिफाइंड में एसेंस डालकर बना घी, रसायनों के अत्यधिक प्रयोग से पके फल और खाद्यान्न, नकली दवाईयाँ इत्यादि कैंसर, हृदय-रोग, किड़नी रोग के कारक हैं फिर भी बाजार में विक्रेताओं द्वारा बेचे जा रहे है। पारिवारिक रिश्ते भी बिखर रहे हैं। माँ-बाप भी अपने बच्चों की सही रूप से संस्कार नहीं दे पा रहे हैं अथवा न बच्चे माँ-बाप की वृद्धावस्था में उन्हें सही ढंग से ध्यान रख पा रहे हैं। पति अथवा पत्नी के दूसरे व्यक्तियों से व्यभिचार सम्बन्ध है। जमीन के छोटे से टुकड़े के लिए हत्याएं हो रही है। ईश्वर से भी विश्वास डिग गया है। परम्परागत संस्कृति से चली आ रही प्रथाओं में भी विचलन देखा जा रहा है। विज्ञान से प्रेरित इस भौतिकवादी युग में चूँकि मनुष्य अपनी नियति का नियंता स्वयं बन गया है, इसीलिए उसका किसी आदर्श, सिद्धांत, मूल्य, परम्परा, ईश्वर में विश्वास नहीं है। जीवन को भोगना ही एकमात्र उद्देश्य है। इसीलिए जब उसे मनोवांछित सुख-सुविधा नहीं मिल पाती तो उसके मन में कुंठा, निराशा, ईर्ष्या, द्वेष आदि निराशामूलक वृत्तियाँ छा जाती हैं। तृष्णा-भोग रूपी जल के सींचने से विषय भोगने की प्यास बुझती नहीं वरन् दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती है। ऐसे में आर्थिक दबाव के कारण भी परेशानियाँ तथा अपराध निरन्तर बढ़ रहे हैं। मनुष्य पर निन्दा, दूसरों के धन, दूसरे की स्त्रियों पर ही आसक्त रहता है और व्यर्थ ही बकवास करता रहता है। इसलिए वह संसार के पचडे में फंसा रहता है। काम, क्रोध, माया, मद और मत्सर (ईर्ष्या) निरन्तर मन में रहते हैं परन्तु दया, धर्म, ज्ञान, गुरू की सेवा ये स्वप्न में भी ध्यान में नहीं आते। कबीर के शब्दों में,
पर निंदा पर धन पर दारा पर अपवादहिं सूरा ।
आवागमन होत है फुनि-फुनि यहु परसंग न चूरा ।।
काम क्रोध माया मद मंछर, ए संतति मो माहिं ।
दया धरम ग्यान गुरू सेवा ए सुपनंतरि नाहिं ।।
ऐसे में कबीर का दर्शन हमें जीवन जीने के मार्ग पर पुनः चिन्तन करने के लिए बाध्य करता है। कबीर क्रान्तिकारी नीतिज्ञ है। भक्त होते हुए भी कबीर परमात्मा और मनुष्य के बीच किसी बिचौलिये को नहीं मानते। परम्परागत धर्म, शास्त्र, कर्मकाण्ड, ऊँच-नीच का भेदभाव, पण्डों या मुल्लों की अज्ञानता का खण्डन करते हैं। जीवन जीने का सबसे सरल मार्ग बताते है और अपनी साखियों, सबदों और रमैनियों में उसको भक्तिपूर्वक गायन करते थे। कबीर भले ही साधारण जुलाहे के परिवार में जन्में फिर भी अपना कार्य ईमानदारी पूर्वक करते हुए उतना ही धन संचय करने की बात करते हैं जिससे जीवनयापन हो सके। कबीर के शब्दों में,
साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय।।
"कबीर : क्रान्तिकारी नीतिज्ञ", International Journal of Science & Engineering Development Research (www.ijrti.org), ISSN:2455-2631, Vol.8, Issue 12, page no.883 - 889, December-2023, Available :http://www.ijrti.org/papers/IJRTI2312121.pdf
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ISSN:
2456-3315 | IMPACT FACTOR: 8.14 Calculated By Google Scholar| ESTD YEAR: 2016
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