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ISSN Approved Journal No: 2456-3315 | Impact factor: 8.14 | ESTD Year: 2016
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Paper Title: पंचायती राज व्यवस्था और ग्रामीण विकास: एक प्रभावशाली विश्लेषण
Authors Name: Hament Malav
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Author Reg. ID:
IJRTI_200164
Published Paper Id: IJRTI2412075
Published In: Volume 9 Issue 12, December-2024
DOI:
Abstract: भारत में लोकतंत्र की नींव बहुत मजबूत है, और इसका मुख्य कारण है उसका विकेंद्रीकरण, जिसे पंचायतों के माध्यम से एक सशक्त रूप दिया गया है। पंचायती राज व्यवस्था भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में प्रशासनिक, राजनीतिक और सामाजिक शक्ति का विकेंद्रीकरण करने का एक अद्वितीय प्रयास है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि शासन की पहुँच सिर्फ शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित न रहे, बल्कि यह ग्रामीण क्षेत्रों तक भी पहुंचे और वहां के लोग अपने अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक हों। पंचायती राज व्यवस्था की नींव 1992 में रखी गई, जब 73वें संविधान संशोधन के तहत पंचायतों को संविधानिक दर्जा दिया गया। इस संशोधन ने पंचायतों को एक अधिकारिक और वैधानिक पहचान प्रदान की, जिसके बाद पंचायती राज संस्थाओं को तीन स्तरों में विभाजित किया गया – ग्राम पंचायत, मध्यवर्ती पंचायत (तालुका या ब्लॉक पंचायत), और जिला पंचायत। प्रत्येक स्तर पर पंचायतों को सरकार की योजनाओं और विकासात्मक कार्यों को लागू करने की जिम्मेदारी दी गई। पंचायती राज व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य न केवल ग्रामीण इलाकों में शासन का विकेंद्रीकरण करना था, बल्कि यह भी था कि स्थानीय नागरिक अपने क्षेत्रीय विकास की योजनाओं में शामिल हो सकें, ताकि वे अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं कर सकें। पंचायतों के माध्यम से स्थानीय लोगों को खुद अपने क्षेत्रों में निर्णय लेने का अधिकार मिला, जिससे उन्हें स्वशासन का अनुभव हुआ और उनके सामाजिक-आर्थिक जीवन में सकारात्मक बदलाव आए। इस शोध पत्र का उद्देश्य यह विश्लेषण करना है कि पंचायती राज व्यवस्था ने ग्रामीण विकास में कितना योगदान दिया है और इसने किस हद तक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलाव लाए हैं। हम यह भी देखेंगे कि इस व्यवस्था के प्रभावी होने के बावजूद किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा है और कैसे इन समस्याओं का समाधान किया जा सकता है, ताकि यह व्यवस्था ग्रामीण विकास में और अधिक प्रभावी हो सके। पंचायती राज व्यवस्था का इतिहास और विकास भारत में पंचायतों का इतिहास प्राचीन काल से जुड़ा हुआ है। भारतीय समाज में पंचायतों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है, जहाँ स्थानीय समुदायों के विवादों को सुलझाने के लिए सामूहिक निर्णय लिए जाते थे। पंचायतें न केवल न्यायिक कार्यों में संलग्न थीं, बल्कि वे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मामलों में भी लोगों के मध्य संवाद और समन्वय का एक महत्वपूर्ण माध्यम थीं। प्राचीन भारत में ग्राम पंचायतों का गठन किया जाता था, जो गाँव के नागरिकों के बीच सामूहिक निर्णय लेने के लिए गठित होती थीं। यह व्यवस्था गांवों के स्वशासन का प्रतीक थी, जहाँ एकत्रित लोग आपसी मतों से निर्णय लेते थे। आधुनिक पंचायती राज व्यवस्था का प्रारंभ भारतीय संविधान में 73वें संशोधन से हुआ, जिसे 1992 में संसद द्वारा मंजूरी दी गई। इस संशोधन ने पंचायतों को एक संविधानिक दर्जा दिया और यह सुनिश्चित किया कि पंचायतों का गठन, कार्यप्रणाली और जिम्मेदारियाँ संविधान के तहत हों। इससे पहले भी पंचायतों का अस्तित्व था, लेकिन यह अधिकतर अनौपचारिक और असंगठित रूप में था। 73वें संशोधन ने ग्राम पंचायतों के रूप में शक्तियों का विकेंद्रीकरण किया, ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय सरकार के रूप में पंचायतें काम कर सकें और वहां के लोग अपनी आवश्यकताओं के अनुसार योजनाएँ बना सकें और कार्यान्वित कर सकें। 73वें संविधान संशोधन के बाद पंचायतों को तीन स्तरों में विभाजित किया गया: 1. ग्राम पंचायत: यह सबसे निचला स्तर है और गाँव के विकास कार्यों की जिम्मेदारी संभालता है। ग्राम पंचायतों का कार्य स्थानीय स्तर पर आवश्यक बुनियादी सेवाओं जैसे पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा और स्वच्छता को सुनिश्चित करना है। 2. मध्यवर्ती पंचायत (तालुका या ब्लॉक पंचायत): यह पंचायतें ग्राम पंचायतों से ऊपर होती हैं और उनकी जिम्मेदारी अधिक व्यापक होती है। ये पंचायतें क्षेत्रीय स्तर पर विकास कार्यों का समन्वय करती हैं और राज्य या केंद्र सरकार से मिलने वाली योजनाओं को ग्राम पंचायतों तक पहुंचाती हैं। 3. जिला पंचायत: यह पंचायतों का सबसे उच्चतम स्तर है और यह जिला स्तर पर विकास कार्यों की निगरानी और कार्यान्वयन करती है। जिला पंचायतें बड़ी योजनाओं और राज्य सरकार से मिली निधियों का सही तरीके से उपयोग सुनिश्चित करती हैं। 73वें संशोधन ने पंचायतों को अधिकार दिया कि वे योजनाओं का निर्माण कर सकें, वित्तीय संसाधनों का प्रबंधन कर सकें और स्थानीय प्रशासन के निर्णयों में भाग ले सकें। इस संशोधन के बाद पंचायती राज संस्थाओं को निर्णय लेने, नीतियाँ बनाने और योजनाओं को लागू करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका दी गई। पंचायती राज व्यवस्था और ग्रामीण विकास 1. आर्थिक विकास: पंचायती राज व्यवस्था ने ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियों को सशक्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पहले, ग्रामीण क्षेत्रों में प्रशासनिक तंत्र कमजोर था, जिसके कारण विकास योजनाओं का सही तरीके से कार्यान्वयन संभव नहीं हो पाता था। लेकिन अब पंचायतों को अधिकार और संसाधन मिल गए हैं, जिससे वे स्थानीय स्तर पर योजनाएँ बना सकती हैं और अपने क्षेत्र में विकास कार्यों को सुचारु रूप से लागू कर सकती हैं। पंचायतों को मिलने वाली वित्तीय स्वायत्तता और सरकार से मिलने वाले अनुदानों का सही उपयोग, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार सृजन, बुनियादी ढांचे के निर्माण और छोटे पैमाने पर उद्यमिता को बढ़ावा देने में सहायक हुआ है। उदाहरण के तौर पर, स्वच्छ भारत मिशन और प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी केंद्रीय योजनाओं को पंचायत स्तर पर लागू किया गया, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छता की स्थिति में सुधार हुआ और लाखों परिवारों को बेहतर आवास उपलब्ध हुआ। इसके अतिरिक्त, जल आपूर्ति, सड़क निर्माण और कृषि कार्यों को बेहतर बनाने के लिए पंचायतों ने सक्रिय रूप से कई योजनाओं का कार्यान्वयन किया, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ किया गया। 2. सामाजिक सुधार और सशक्तिकरण: पंचायती राज व्यवस्था ने महिलाओं और समाज के पिछड़े वर्गों को सशक्त बनाने में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। महिला आरक्षण के तहत पंचायतों में 33% सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गईं, जिससे उन्हें राजनीतिक निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी का अवसर मिला। इससे न केवल महिलाओं के सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ, बल्कि उन्होंने अपने गाँव और क्षेत्र के विकास में भी सक्रिय भूमिका निभानी शुरू की। साथ ही, पंचायती राज व्यवस्था के माध्यम से शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण योजनाओं का कार्यान्वयन भी हुआ, जो ग्रामीण जीवन के विभिन्न पहलुओं में सुधार लाने में सहायक रही हैं। सरकारी योजनाओं के माध्यम से स्वास्थ्य सुविधाओं, शिक्षा और महिला कल्याण की दिशा में कई कदम उठाए गए, जिससे ग्रामीणों का जीवन स्तर बेहतर हुआ। इसके अलावा, पंचायतों ने दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए योजनाओं को प्राथमिकता दी और उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाने की दिशा में कदम उठाए। पंचायत स्तर पर यह सुनिश्चित किया गया कि विकास योजनाओं का लाभ सभी वर्गों तक पहुंचे और सामाजिक न्याय की दिशा में प्रयास किए गए। 3. राजनीतिक सशक्तिकरण: पंचायती राज व्यवस्था ने स्थानीय राजनीति में भी महत्वपूर्ण बदलाव किया है। पहले, ग्रामीण क्षेत्रों के लोग अपनी समस्याओं को स्थानीय स्तर पर व्यक्त करने में असमर्थ थे, लेकिन अब पंचायतों के माध्यम से उन्हें अपने मुद्दे उठाने और समाधान पाने का अवसर मिला है। पंचायत चुनावों के माध्यम से नागरिकों को अपने नेता चुनने का अधिकार मिला है, जो उनकी स्थानीय समस्याओं का समाधान करने के लिए जिम्मेदार होते हैं। इसने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को भी मजबूत किया है, क्योंकि अब ग्रामीण क्षेत्रों में लोग अपनी राजनीतिक पहचान और अधिकारों को समझते हुए अधिक सक्रिय रूप से चुनावों में भाग लेते हैं। इसके परिणामस्वरूप, पंचायतों ने अपने इलाके में लोकतांत्रिक मूल्य और अधिकारों के बारे में जागरूकता फैलाने में भी अहम भूमिका निभाई है। स्थानीय शासन व्यवस्था को सशक्त करने के साथ-साथ पंचायती राज व्यवस्था ने लोकतांत्रिक संस्थाओं को बुनियादी स्तर तक पहुँचाया है, जिससे गाँवों में लोकतंत्र का सशक्तिकरण हुआ है। इस प्रकार, पंचायती राज व्यवस्था ने न केवल आर्थिक और सामाजिक विकास को गति दी है, बल्कि राजनीतिक सशक्तिकरण को भी बढ़ावा दिया है, जो ग्रामीण इलाकों में शासन की पारदर्शिता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सशक्त बनाने में सहायक है। चुनौतियाँ और समस्याएँ 1. वित्तीय संसाधनों की कमी: पंचायती राज संस्थाओं के पास अपने विकास कार्यों को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं होते हैं। अधिकतर पंचायतें सरकारी अनुदान और योजनाओं पर निर्भर रहती हैं, और इन अनुदानों का आकार कई बार पंचायतों की जरूरतों और परियोजनाओं के लिए अपर्याप्त होता है। इसके परिणामस्वरूप, कई योजनाओं को पूरी तरह से कार्यान्वित नहीं किया जा सकता, और विकास कार्यों में रुकावटें आती हैं। पंचायतों को सही तरीके से संचालन के लिए स्थानीय स्तर पर स्व-निर्भर वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता है, ताकि वे अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार योजनाओं को लागू कर सकें। इसके अलावा, पंचायतों को बिना किसी बाधा के अपने कार्यों के लिए धनराशि की सही मात्रा और समय पर प्राप्ति की समस्याएँ भी होती हैं, जो ग्रामीण विकास के प्रयासों को प्रभावित करती हैं। 2. प्रशासनिक और कानूनी जटिलताएँ: पंचायती राज संस्थाओं के पास विभिन्न शक्तियाँ और अधिकार होने के बावजूद, उन्हें राज्य और केंद्र सरकारों से पर्याप्त सहयोग नहीं मिलता। कई मामलों में, पंचायतें अपनी योजनाओं को लागू करने में कानूनी और प्रशासनिक जटिलताओं का सामना करती हैं। इस स्थिति का एक प्रमुख कारण विभिन्न सरकारी विभागों और संस्थाओं के बीच समन्वय की कमी है। पंचायतों के लिए योजनाओं को प्रभावी रूप से लागू करने के लिए आवश्यक प्रशासनिक समर्थन और मार्गदर्शन का अभाव होता है, जिससे पंचायतों का कार्यक्षेत्र संकुचित होता है और विकास कार्यों की गति धीमी हो जाती है। इसके अतिरिक्त, पंचायतों के पास प्रशासनिक क्षमता की कमी होती है, जिससे निर्णय लेने और कार्यों को लागू करने में समस्या उत्पन्न होती है। 3. सामाजिक और सांस्कृतिक अड़चनें: ग्रामीण क्षेत्रों में पारंपरिक और सांस्कृतिक अवरोधों का सामना भी पंचायती राज व्यवस्था को करना पड़ता है। खासकर महिलाओं और अन्य सामाजिक समूहों के लिए पंचायतों में सक्रिय रूप से भाग लेने में कठिनाइयाँ आती हैं। कई गाँवों में जातिवाद, पितृसत्तात्मक मानसिकता और स्थानीय परंपराएँ पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी को सीमित करती हैं। यह परंपरागत सोच और सामाजिक दृष्टिकोण पंचायतों की योजनाओं और निर्णयों में बदलाव लाने के प्रयासों को बाधित करते हैं। महिलाओं और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए समान अवसर और सशक्तिकरण की दिशा में पंचायती राज व्यवस्था को सामाजिक और सांस्कृतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा, कुछ समुदायों में नेताओं और प्रभावशाली व्यक्तियों का अत्यधिक हस्तक्षेप होता है, जो स्थानीय प्रशासनिक और सामाजिक व्यवस्था को प्रभावित करते हैं, जिससे पंचायतों का कामकाज प्रभावी नहीं हो पाता। इन सामाजिक और सांस्कृतिक बाधाओं को समाप्त करने के लिए आवश्यक है कि पंचायतों में शिक्षा, जागरूकता और समानता की भावना को बढ़ावा दिया जाए, ताकि सभी वर्गों को समान रूप से विकास के अवसर मिल सकें। इन चुनौतियों का समाधान ढूँढ़ने के लिए सरकार को पंचायतों को अधिक वित्तीय संसाधन, प्रशासनिक सहयोग और कानूनी समर्थन प्रदान करना होगा। साथ ही, ग्रामीण समाज में सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव के लिए व्यापक शिक्षा और जागरूकता अभियान चलाए जाने की आवश्यकता है। पंचायतों को अपनी शक्तियों का बेहतर उपयोग करने के लिए स्व-निर्भरता की दिशा में कदम उठाने होंगे, ताकि वे ग्रामीण विकास को प्रभावी रूप से आगे बढ़ा सकें। निष्कर्ष पंचायती राज व्यवस्था ने भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में विकास की एक नई दिशा दी है, जिससे न केवल प्रशासनिक और राजनीतिक विकेंद्रीकरण हुआ है, बल्कि यह व्यवस्था स्थानीय समुदायों के लिए अधिक स्वायत्तता और नियंत्रण भी प्रदान करती है। इसके माध्यम से ग्रामीण इलाकों में योजनाओं का बेहतर क्रियान्वयन, सामाजिक और आर्थिक विकास, और राजनीतिक सशक्तिकरण संभव हुआ है। हालाँकि, यह व्यवस्था अब भी कई चुनौतियों का सामना कर रही है, जैसे वित्तीय संसाधनों की कमी, कानूनी और प्रशासनिक जटिलताएँ, और सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाएँ, जो इसके प्रभावी कार्यान्वयन में रुकावट डालती हैं। इन समस्याओं को दूर करने के लिए पंचायतों को अधिक स्वायत्तता, वित्तीय संसाधन और सही दिशा में शिक्षा देने की आवश्यकता है। अगर पंचायतों को अपनी योजनाओं के संचालन में अधिक स्वतंत्रता और संसाधन मिलते हैं, तो वे ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर सकारात्मक बदलाव ला सकती हैं। पंचायतों को सक्षम और सशक्त बनाने के लिए एक मजबूत प्रशासनिक ढाँचा, पारदर्शिता, और भ्रष्टाचार-मुक्त कार्यप्रणाली सुनिश्चित की जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी पंचायतों की भूमिका को सशक्त बनाने की दिशा में काम करने की जरूरत है, ताकि सभी समुदायों, विशेष रूप से महिलाओं और पिछड़े वर्गों की समान भागीदारी सुनिश्चित हो सके। यह कदम ग्रामीण क्षेत्रों में समानता, समावेशिता और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देगा। यदि इन पहलुओं पर ध्यान केंद्रित किया जाए और पंचायतों को एक स्थिर मंच प्रदान किया जाए, तो यह भारतीय लोकतंत्र के मूल्यों को प्रगति की दिशा में और सशक्त करेगा। पंचायती राज व्यवस्था का सही दिशा में विस्तार ग्रामीण समाज के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक उन्नति में महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है। इससे न केवल लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भागीदारी बढ़ेगी, बल्कि यह ग्रामीण विकास के हर क्षेत्र में दीर्घकालिक सुधार सुनिश्चित कर सकेगा। संदर्भ 1. पांडेय, श. 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Cite Article: "पंचायती राज व्यवस्था और ग्रामीण विकास: एक प्रभावशाली विश्लेषण", International Journal of Science & Engineering Development Research (www.ijrti.org), ISSN:2455-2631, Vol.9, Issue 12, page no.a693-a698, December-2024, Available :http://www.ijrti.org/papers/IJRTI2412075.pdf
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ISSN: 2456-3315 | IMPACT FACTOR: 8.14 Calculated By Google Scholar| ESTD YEAR: 2016
An International Scholarly Open Access Journal, Peer-Reviewed, Refereed Journal Impact Factor 8.14 Calculate by Google Scholar and Semantic Scholar | AI-Powered Research Tool, Multidisciplinary, Monthly, Multilanguage Journal Indexing in All Major Database & Metadata, Citation Generator
Publication Details: Published Paper ID: IJRTI2412075
Registration ID:200164
Published In: Volume 9 Issue 12, December-2024
DOI (Digital Object Identifier):
Page No: a693-a698
Country: kota, Rajasthan, India
Research Area: Arts
Publisher : IJ Publication
Published Paper URL : https://www.ijrti.org/viewpaperforall?paper=IJRTI2412075
Published Paper PDF: https://www.ijrti.org/papers/IJRTI2412075
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Impact Factor: 8.14 and ISSN APPROVED, Journal Starting Year (ESTD) : 2016

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