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नासिरा शर्मा के उपन्यासों में अभिव्यक्त आर्थिक यथार्थ
मनुष्य का रहन-सहन काफी हद तक आर्थिक स्थिति के अनुरूप होता है। जिन्दगी में अर्थ को प्रमुख स्थान है। पूँजीवाद ने धनिक को अधिक धनवान और दरिद्र को अधिक दरिद्र बना दिया है। सुशिक्षित युवक नौकरी की तलाश में अपना समय बर्बाद करते हैं। बेरोजगारी, गरीबी और महंगाई ने आज-कल भीषण रूप धारण कर लिया है। पैसा कमाने के वास्ते स्त्रीयाँ अपना शरीर भी बेचती हैं तथा अपने और अपने परिवार की भूख मिटाने के लिए बच्चे भी मज़दूर बन जाते हैं। आर्थिक रूप से उच्चवर्ग हमेशा समृद्ध है। मध्यवर्ग आर्थिक शोषण का शिकार बने पैर मारते हैं।
समाज का अविभाज्य घटक होने के कारण अर्थ के साथ मनुष्य का संपर्क बढ़ चुका है। आज के समाज में अर्थ मनुष्य का अंग बन गया है। ""विभिन्न सामाजिक संघर्षों, राजनीतिक समस्याओं एवं क्रांतियों का मूल कारण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अर्थ ही होता है।""1 बेरोजगारी, गरीबी और महंगाई, आर्थिक शोषण, बाल मज़दूरी, शरीर विक्रय आदि विविध पहलुओं को लेकर उपन्यासकार नासिरा जी ने आज के समाज के आर्थिक यथार्थ का चित्रण किया है।
बेरोज़गारी :-
बेरोज़गारी आज एक बड़ी व गंभीर समस्या बनकर उभर आयी है। आज बेरोजगारी की समस्या भारत में इतनी जटिल है, कि उसकी किसी भी अन्य समस्या से तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि यह उतना ही ह्रासपूर्ण है। रोज़ी रोटी की तलाश में युवक भटक रहे हैं, शिक्षित और अशिक्षित भी। देश के आर्थिक विकास में यह एक प्रमुख बाधा ही है। जनसंख्या में वृद्धि, कुटीर उद्योग में गिरावट, तकनीकी उन्नति न होना, रोज़गार का अभाव, शिक्षितों की अधिकता आदि कई कारणों से बेरोजगारी की समस्या बढ़ती जा रही है। रोजगार के लिए सही कार्यक्रम पद्धति का आविष्कार करने का प्रयास नियम निर्माताओं को करना ही चाहिए।
"शाल्मली" की नायिका सुशिक्षित होकर भी इस बात पर परेशान व भयभीत हो जाती है कि ""वह इतना पढ़-लिखकर केवल गृहिणी बनकर रह जाएगी। पता नहीं नौकरी मिले या न मिले भगवान जाने। लाखों एम.ए. किए विद्यार्थी बेकार बैठे हैं।..... वह घर, बाहर बहुत कुछ कर सकती है।..... वरना, हर बात पर पति के आगे हाथ फैलाना पडेगा?""2 सुशिक्षित नारी अपने पैर पर खड़े रहने की इच्छा करना उसके अस्तित्व की सुरक्षा के लिए ही है।
इधर रोज़गार न मिलने की वजह से अनेक लोग मज़बूर होकर विदेश में नौकरी करते हैं। "अक्षयवट" में इसी विषय की चर्चा करते वक्त एक लड़का कहता है, ""पराए देश नहीं जाना चाहता, मगर मज़बूर है। जब आया था तब जेब भरी थी। ....मगर पिछले तीन महीनों में घर और घरवालों की ज़रूरत पूरी करते-करते पहले घडियाँ एक-एक कर बिक्री, फिर ट्रांज़िस्टर, थरमस, कंबल और अब बुलेट भी बिक गयी। खाली हाथ वापस जा रहा है। उसके लिए वह प्रश्न महत्वपूर्ण है, कि आखिर उसको यहाँ रोजगार क्यों नहीं मिल सकता है। वह यहाँ रहकर इतना कमा क्यों नहीं पाता है कि न उसका कुटुम्ब भूखा सोए, न कोई माँगता दरवाजे से खाली हाथ जाए।""3 उल्लेखनीय बात यह है कि यहाँ रोज़गारी की संख्या बढ जाएगी तो बेरोजगारों को यह दुर्दिन न देखने को मिलेगा।
"शब्द पखेरू" में घर की बेहाल स्थिती में अपनी नौकरी को छोड़ने का फैसला करते सूर्यकान्त ने घर पहुँचते ही बेकार की खयालात को बाहर झटका और वह घर में दाखिल हुआ। उनका अफिसर उन्हें समझाता है कि ""दूसरी नौकरी मिलना जितना कठिन है उतना ही कठिन है सारे दिन बेकार और तन्हा रहना।""4 सूर्यकान्त अपनी नौकरी छोड़ने की चिन्ता छोड़ता है।
"ठीकरे की मंगनी" की महरुख एक स्कूल में अध्यापिका है। सभी अध्यापक छात्रों के भविष्य को लेकर चिंतत हैं। नेगीजी कहते हैं - ""हम जो हर साल इतनी संख्या में हाईस्कूल पास लड़के निकाल रहे हैं, वे पढ़-लिखकर खपेंगे कहाँ? बेकारी और मुँह बाएगी।""5 परंपरागत व्यवसाय अपनाने का मश्वरा दे कर माधुर जी कहता है ""अर्थात डिग्री दुकान में टाँग कर जूता गाटेंगे, कपड़ा, पछाड़ेंगे, पान लगायेंगे।""6 यह बेरोजगारी की चरमसीमा ही है।
"ज़ीरो रोड़" के सिद्धार्थ का मत है, ""ज़्यादा आबादी वाले देशों में बेकारी और भुखमरी से मरते लोगों के लिए कहीं भी जाकर रोज़गार हासिल करना बहुत बड़ी खुशनसीबी है। इस सच को जानकर ही इस तरह की कम्पनी का धन्धा शु डिग्री हुआ, जो ज़रूरत को देखते हुए खूब पनप रहा है।""7 एम.ए. पास होकर भी सिद्धार्थ को काम नहीं मिल रहा था। इसलिए वह विदेश जाकर काम करता है। ""उन्हें याद है कि सिद्धार्थ ने अच्छे नम्बरों से एम.ए. पास किया मगर बेकारी का नाग उसके चारों तरफ कुंडली मारकर बैठ गया कि रामप्रसाद के हाथों के तोते उड गये। सिद्धार्थ तो आशा-निराशा के बीच भटक रहा था।""8 डॉ. शेख अफरोज ने इसके बारे में साफ लिखा है - ""नासिरा शर्मा का उपन्यास "ज़ीरो रोड़" बेरोजगारी की समस्या को दर्शाता है। अपने देश के युवक दूसरे देश के निर्माण में योगदान दे रहे हैं।""9 सिद्धार्थ के बेकार बैठने के बारे में पिता रामप्रसाद परेशान रहता है। बेरोजगार को यहाँ जीना नरकतुल्य ही है।
"जिन्दा मुहावरे" का निज़ाम अपनी रोज़ी रोटी कमाने के लिए फेरी लगाता है। ""दो दिन भूखा रहने और फुटपाथ पर सोने के बाद पेट की आग ने निज़ाम को मज़दूरी करने, बोझा ढोने और फेरी लगाने पर मज़बूर कर दिया था।""10 "बहिश्ते ज़हरा" में इराक की बम के परिवेश में सारे कारखाने बन्द हो गए तो अनेक बेकार बन गये थे। आर्थिक अभाव, बेकारी या बेसरोसामानी से यासमीन की जिन्दगी नरक तुल्य हो गयी है। बेरोजगारी की वजह से भूखा-प्यासा होकर रहनेवाले अनेक लोग हैं। बेरोजगारी को दूर करने के वास्ते सरकार को विदेशी कंपनियों के साथ मिलकर नई-नई इकाइयों को देश में खोलकर रोज़गार की संभावनाएँ बढ़ाना आवश्यक ही है।
गरीबी और महंगाई: -
आहार शास्त्रियों के अनुसार एक व्यक्ति को 2250 कैलरी प्राप्त नहीं कर पाता तो वह गरीब की संज्ञा में गिना जा सकता है। अन्न, वस्त्र, निवास जैसी मूलभूत आवश्यकताएँ पूर्ण नहीं कर पाता तो भी वह व्यक्ति गरीबों में गिने जा सकता है। भारत में लगभग 35 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे गिने जाते हैं। भारत में शहर की अपेक्षा ग्रामीण इलाकों में गरीबी अधिक दिखाई देती है। निम्नवर्गीय लोग महंगाई के कारण और गरीब होते जा रहे हैं। आज भारत की अस्सी प्रतिशत जनता गरीबी में जीवन यापन कर रही है। कई लोग मुश्किल से दिन में एक बार खाना खाते हैं। नासिरा जी ने सामाजिक गरीबी और महँगाई को अपने उपन्यासों में चित्रित किया है।
"ठीकरे की मंगनी" की महरुख अपने व गाँव की गरीबी देखकर दुखी हो जाती है। उसका ""दिल सारा दिन उचाट-सा रहा। अजीब नामहरूमी से भरी ज़िन्दगी है, यह! खाना है, तो कपड़ा नहीं, कपड़ा है, तो घर नहीं और अगर तीनों हैं तो फिर पढ़ाई और नौकरी की सहुलियतें नहीं हैं।""11 गरीब बच्चों की हालात तो किसी के भी दिल को द्रवित करती है - ""कक्षा में लड़कों की खाँसी, छींक और नाक सुकड़ने की आवाज़ें शोर में बदलने लगी थी। स्वेटर तो एक-दो वदन पर होता, बाकी बण्डी पहनते और कुछ तो ऐसे भी थे, जो सिर्फ सूती चादर गले से बाँधे बैठे-बैठे काँपने या फिर नीले पड़े होठों के ऊपर फटे हाथ से नाक पोंछते रहते थे। इन सबकी हालात देखकर महरुख ने गर्म कोट पहनना तो छोड़ ही दिया था, स्वेटर और शॉल भी उसे काटने लगते थे।""12 आर्थिक विषमता के कारण कई बच्चे बिना चप्पल के स्कूल में आते हैं। गरीबी के कारण बीमार होना स्वाभाविक है।
"सात नदियाँ एक समन्दर" में ईरान की युद्धग्रस्त स्थिति ने उच्चवर्ग को छोड़कर शेष सभी लोगों को गरीबी का शिकार बना दिया। उस वक्त ""महँगाई, बेकारी, भय ईरान में अपनी चरम सीमा पर पहुँचा हुआ था। जो पैसेवाले थे, उनके तहखाने चीज़ों से भरे हुए थे। ....पिस रहा था मध्य व निम्नवर्ग, बेकारी, भूख उन्हें सबसे ज़्यादा सता रही थी।""13 गरीबी में जिन्दगी को घसीट ले जाना मुश्किल है। भूख और गरीबी से मलीहा, शबनम खानम जैसे अनेकों को ज़िन्दगी बोझ जैसी लगी। ""मुसीबत यह थी कि खुदा ने उन्हें पेट के नाम पर ऐसा दोज़ख दिया था, जिसकी आग रोटी से बुझती है और रोटी आसमान से गिरती नहीं है, बल्कि खून-पसीने की कमाई से खरीदी जाती है। यह समस्या पेट भरे लोगों की समझ से बाहर थी।""14 युद्धग्रस्त भूमि में महंगाई और गरीबी स्वाभाविक दृश्य है जिसने ईरान की मिट्टी में ज़्यादा विकराल रूप धारण कर लिया है।
"कुइयाँजान" के इमाम साहब की ज़िन्दगी गरीबी में गुज़रती है। ""पास के होटल से मौलाना खाना मँगवाते थे। सस्ते दामों में होटलवाला रोटी-शोरबा देकर यह समझता था कि वह बड़ा नेक काम कर रहा है। मौलाना की आमदनी तो कुछ थी नहीं, सिवाय उस "फ़ितरे" के जो दो-तीन घरों से उन तक पहुँचता था, जिससे उनका खर्च जैसे-तैसे चल जाता था।""15 गरीबी को हटाने के लिए सरकार की ओर से समुचित योजनाओं को कार्यान्वित करना है।
गरीबी लोगों को कुछ भी करने के लिए मज़बूर करती है। वह इन्सान को जानवर और चोर भी बना देती है। "कागज़ की नाव" में शरीफ़ खानदान के एक लड़के का कथन आँख में पानी भर देनेवाला है। ""मैं अच्छे शरीफ़ खानदान से हूँ। इकलौता लड़का हूँ। काम मिलता नहीं, गरीबी की वजह से आगे पढ़ नहीं पाया और काम शु डिग्री किया तो आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपया। थक गया था मैं ज़िंदगी की मार खा-खाकर।.... हमारे पास जुर्म के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है, जो बात आपको जुर्म लगती है उसमें हमको, अपनी रोज़ी-रोटी की उम्मीद नज़र आती है। भूखा पेट कुछ भी करा सकता है.... कुछ भी।""16 पेट की भूख, गरीबी की सबसे बड़ी और पहला इकाई है। उसका दर्द अनुभवग्रस्त मात्र ही जानते हैं।
"शब्द पखेरू" में तकनीकी दुनिया का सच समझाते हुए शैलजा कहती है ""यह पूरी दुनिया तकनीकी दृष्टि से जिस तेज़ी से बदल रही है वहाँ संवेदना की जगह पैसे का महत्व बढ़ रहा है और हम कुछ ज़्यादा ही भावुक हैं। व्यावहारिक चाह कर भी नहीं हो पाते हैं।""17 अत्याधुनिक दुनिया रुपये के बल पर नियंत्रित है।
परिस्थिती, वातावरण और मौसम कुछ भी हो जाय गरीबों का हाल बेहाल ही रहता है। इसी वजह से - "जिन्दा मुहावरें" का निज़ाम कहता है - ""गरीब तो गरीब है।""18 भूख मिटाने के लिए चोरी किए बूढ़ी औरत का चित्रण नासिरा जी ने "अजनबी जज़ीरा" उपन्यास में किया है - ""किसी बूढ़ी औरत ने दो कुब्बे (रोटी) छुपा अपनी अबा में डाल लिये थे। बूढ़ी औरत पकड़े जाने पर थर-थर काँप रही थी। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं और आँखों से बेतहाशा आँसू की लड़ियाँ गिर रही थीं।""19 युद्धग्रस्त ईरान में "बूढे, बच्चे, युवक सब भूख मिटाने को मज़बूरन चोरी करते हैं। ईरान के युद्ध वातावरण में हर एक हाथ-पैर मारते हैं। उनकी शिकायत है - ""महँगाई, बेकारी, ऊपर से मकान का किराया, बच्चों की फ़ीस, पागल तो बना दिया है, परेशानियाँ न हमें।""20 महँगाई युद्ध की विभीषिका को और भी विकराल बना देती है।
भारत देश की गरीबी के बारे में "कुइयाँजान" के ननकू का कहना वाजिब है - ""गरीबी का ताना-बाना बहुत मज़बूत है ई देश में। ओहि ताने-बाने पर सरकार की गाड़ी चलत है। हम न होय तो विश्वास करो, मास्टरजी, इनका रथ ठहर जाई।""21 बहिश्ते-ज़हरा" में मलीहा अपने सोने को बेचकर बच्चों के खाने का इंतज़ाम करती है। ""दाम देख कर थोड़ी-सी विचलित हुई फिर मन-ही-मन सोचने लगी। मुझे एक वक्त ही खाना चाहिए। इसके अलावा बचत करूँ भी कहाँ से बढ़ते को जूते, कपड़े, खाने सब की ही ज़रूरत पड़ती है। कुछ दिन बाद कहाँ से लाऊँगी यह सब चीज़े?""22 बढती महँगाई समाज में एक अभिशाप बन चुकी है। महँगाई को रोकने के लिए सरकार की सहमती की आवश्यकता कई ज्यादा है। सस्ते दामों में चीज़ें उपलब्ध हो जाय तो गरीबी कम हो जायेगी।
अपने उपयोग से ज़्यादा वस्तु खरीद न करके सामान्य जन भी सरकार का हाथ बँटाए तो, महँगाई कम हो जायेगी। महँगाई को रोकने के लिए कालाबाज़ारी एवं जमाखोरी रोकना अनिवार्य है। ""महँगाई को हम राष्ट्रीय संकट कहें तो अनुचित न होगा। आज हम देख रहे हैं, कि महँगाई और खर्च के दो पाटों में हर व्यक्ति पिसता हुआ नज़र आ रहा है।""23 आज की यथास्थितिकता यह है कि किसी वस्तु के दाम बढ़ जाने के बाद उतरने की व्यवस्था भी नहीं।
आर्थिक शोषण :-
धनार्जन की लालच ने मानव को अन्य व्यक्तियों का आर्थिक शोषण करने की प्रेरणा दी है। ""शोषकों द्वारा शोषण की प्रक्रिया गांव से नगर-महानगरों तक फैली है। उसका रूप अलग-अलग है लेकिन मूल उद्देश्य एक ही है - गरीबों को लूटना और उनका सर्वांग शोषण करना।""24 धनोपार्जन के लिए अन्य का शोषण करना गलत है। धन लिप्सा मानव को अंधा बना देती है। "काग़ज की नाव" उपन्यास की शमा का कहना है, ""याद रखो अकेला पैसा तहजीब नहीं लाता है, कलह लाता है। खुदग़र्ज़ी और दुश्मनी लाता है। आज हमारा शहर, हमारे लोग उसकी चपेट में आ गए हैं। पैसे के लालच ने उन्हें अंधा बना दिया है। अपने खून के रिश्तों के खिलाफ़ खड़ा होना सीख गए है।""25 शमा अपनी बहु मायदा को पैसे का लालच रिश्तों को तोड़ने की चीज़ समझा रही है।
"अजनबी जज़ीरा" में समीरा अपने बच्चों की भूख मिटाने के लिए ग़ालीचे बेचने दूकान में आयी तो कीमत सुनकर सोच में पड़ जाती है। क्योंकि दूकानदार ने गालीचे को उसके असली दाम के सिर्फ पन्द्रह प्रतिशत देकर अपनाना चाहता है। युद्ध के वातावरण ने आर्थिक समस्या को चरमसीमा पर पहुँचा दिया है। ""समीरा कुछ देर उस ग़ालीचे को देखती रही जो उसने अपने शौहर के लिए उसकी सालगिराह के दिन खरीदा था। तब इसकी कीमत लाख रियाल थी। समय के साथ कालीनों के दाम बढ़ते हैं। घटते नहीं है।""26 युद्धग्रस्त स्थानों में आर्थिक शोषण ज़्यादातर होता है।
"ज़ीरो रोड़" उपन्यास ने मध्यवर्ग परिवार के आर्थिक शोषण को स्पष्ट किया है। डॉ. सुधा सिंह इस संदर्भ में कहती है - ""उपन्यास का आरंभ निम्न मध्यवर्गीय भारतीय परिवारों की एक-सी कहानी आर्थिक तंगी, रिटायर्ड बाप, बेरोज़गार जवान बेटे, कुंवारी बेटी और गृहिणी माँ के इर्द-गिर्द हुआ है। आधुनिक भारत का सबसे बड़ा हिस्सा आज भी इस सच को झेल रहा है।""27 इसमें अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक शोषण के बारे में ज़रयाब का कहना है, ""गरीब मुल्कों की भूख अभी तक काबू में नहीं आ रही है मगर विकसित देशों के कूड़ेदानों को देखो तो पता चलेगा कि उसमें फेंका खाना कितने लाख परिवारों का पेट भर सकता है और फिर अपनी डिमाक्रेसी को बचाने के लिए वह क्यूबा के गुवाटानामों में जाकर डेल्टा कैम्प यानी टारचर कैम्प खोलते हैं, ठीक फेड्रोक्रेस्टो की आँखों के सामने।""28 अपनी सत्ता व अधिकार को बचाने के वास्ते आर्थिक शोषण करने की प्रवृत्ति स्वाभाविक है।
आर्थिक शोषण बढता अपराध ही है जो नकारात्मक मानसिकता की प्रवृत्ति ही है। लत लगाकर फंसाना, मज़बूरी का लाभ उठाना, धोखे खाना आदि आर्थिक शोषण के मुख्य तरीके हैं, जो आज सर्वसाधारण हो उठे हैं।
बाल मज़दूरी: -
आज बालश्रमिकों व बालमज़दूरों की संख्या बढ रही है। आर्थिक अभाव के कारण बच्चे शिक्षा की पूर्ति नहीं कर पाते हैं और मज़बूरन नौकरी के लिए तैयार हो जाते हैं। अपने नन्हा सा पेट को भूखा-प्यासा न छोड़ने के लिए बालक वर्ग मज़दूरी करते हैं। भारत की अनेक गलियों में होटलों तथा अन्य व्यापार-व्यवस्था पर काम करनेवाले बाल मज़दूर बहुत ही है। ""बालश्रम में सहायक अनेक कारक हैं जैसे - भूख, गरीबी, शिक्षा का अभाव, दुःख, जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं का पूरा न होना, चिंता, पारिवारिक कष्ट, तनाव, पारिवारिक विघटन, बेरोजगारी, जिज्ञासा, पारिवारिक अनुशासन की कमी, औद्योगीकरण, फिल्में, नशाखोरी तथा उपेक्षित व्यवस्था आदि।""29 बाल मज़दूरी रोकने का प्रयास सरकार ने किया लेकिन आर्थिक कमी ने बाल मज़दूरी को बढ़ा दिया है।
"अक्षयवट" के बालक जगन्नाथ को पिता की दुर्घटना मृत्यु के उपरान्त घर की जिम्मेदारी को निभाने के लिए मज़दूर बनना पडा। उसका कहना है - ""नौ लोगों का भोजन जुटाने के लिए मैं उसी स्कूल के सामने छोले, मूँगफली भी बेचता था, जहाँ पढ़ता था। फिर होटल में काम भी किया, मार खायी, गाली सुनी, रात को रोया भी मगर हार नहीं मानी। मेरी इस दौड़ में कुछ वर्षों बाद बहन-भाई भी शामिल हो गये।""30 उपन्यास में मुरली की ज़िन्दगी भी ऐसी ही है। मुरली के घर की हालत बहुत खस्ता थी। माँ-बाप हैजे से मर चुके थे। आगे मामा ने उसे पाला था। आर्थिक पराधीनता के कारण मामा ने छठवाँ दर्जा पास करवाकर उसकी पढ़ाई बन्द करवा दी। आगे मुरली ने मामा से मिलकर जाडे के दिनों में भी कडी मेहनत की ताकि उसके घरवालों की भूख, अभाव व कर्ज, एक सीमा तक मिटा सका। दिन-रात काम करनेवाले निहत्थे बाल-बालिकाओं की संख्या अनगिनती है।
"ज़ीरो रोड़" में बाल मज़दूरी का क्षेत्र बिलकुल अलग ही है। युद्ध की स्थिती ईरान में हँगामा मचा रही थी। आर्थिकता और साम्प्रदायिकता के भूत ने बच्चों को भी नहीं छोडा वे भी गोली मारने और युद्ध में भागीदारी बनने के लिए प्रेरित व तैयार हो गये। ""अंगोला में हुए युद्ध के चलते बच्चे तक जंग में झोंक दिये गये, जो हालात ईरान में आये थे। अंगोला में अपने कद के बराबर की ए.के-47 लेकर बच्चे चलते तो देखकर अजीब लगता था। जब युद्ध बन्द होने की बात उठी तो सबसे बड़ी फिक्र उन बच्चों को हुई जो घर लौटते हुए तनख्वाह के नाम पर छोटी-सी रकम लेकर यह सोच रहे थे कि आगे अब क्या करेंगे?""31 प्रस्तुत उपन्यास में जर्मन का एक इंटीरियर डिज़ाइनर ने बच्चों की इस विवशता को यों व्यक्त किया है - ""मुझे तो महसूस होता है कि आज इस आधुनिक दुनिया में सबसे ज़्यादा कष्ट में वे बच्चे हैं जिन्हें सियासत और तकनीक दोनों ही शोषित कर रहे हैं जिसके पीछे उन्हीं के पैदा करनेवालों का हाथ है।""32सामाजिक, शारीरिक, बौद्धिक और मानसिक सभी दृष्टिकोण से देखा जाय तो बाल मज़दूरी बच्चों की वृद्धि और विकास में अवरोध ही कहना उचित है।
"शब्द पखेरू" में पेट पालने के लिए बाल मज़दूरी करते बालकों का चित्रण मिलता है। शैलजा और उसकी सहेली सादिया सड़क से जाते वक्त धूप में अपने सामान की बिक्री करते बालकों को देखती हैं। ""चौड़े फुटपाथ पर सड़क किनारे खड़े पेड़ों के नीचे एक परिवार बैठा ज़मीन पर बिखरे फूलों से गुलदस्ते बना रहा था। डंठाल कट-छँट और स्प्रे के बाद फूलों के गुलदस्ते का रूप ले रहे थे जिनको लेकर सात-आठ साल के दो बच्चे रेडलाइट पर रुकी कारों के बीच जा उन्हें बेचने की कोशिश कर रहे थे। गाड़ियाँ चल पड़ीं तो वे दोनों निराश हो उनके पीछे दौड़े, फिर दूसरी तरफ़ जाती लड़कियों की तरफ लपके।""33 गरीबी के कारण अनेक बालक शिक्षा, अन्न और वस्त्र से वंचित रहते हैं।
शरीर विक्रय: -
आर्थिक अभाव के कारण ही अनेक स्त्रियाँ अपने तन बेचने को विवश हो जाती हैं। ""आर्थिक परवशता के पीछे कई कारण छिपे हैं - गरीबी, बेरोजगारी, परिवार के सदस्यों की बड़ी संख्या, कम वेतन, पुरुषों की हीन प्रवृत्ति आदि। लेकिन जब आर्थिक समस्या उनके सामने आती है, तो स्त्री के पास अपने शरीर के अलावा और कोई चीज नहीं होती और निर्धन मनुष्य विवश होकर अपने घर की स्त्रियों को वासना के बाज़ार में बिठाता भी है।""34 इस श्रेणी में केवल अनपढ नारी ही नहीं बल्कि सुशिक्षित भी कार्यरत है। इसीलिए समरेन्द्र सिंह कहते हैं - ""पढ़ी-लिखी लड़कियाँ जो कि स्त्री मुक्ति का झंडा बुलन्द कर सकती थीं और समाज में व्याप्त स्त्री शोषण के कुचक्र को खत्म करने का प्रयास कर सकती थीं, आज सड़कों, चौराहों और पदों पर अपने बदन की नुमाइश से किसी उत्पाद को बेचती या इन्हीं उत्पादों के खरीदती नज़र आती हैं।""35 अर्थ प्राप्ति के लिए शरीर विक्रय करने में ये नारियों शरम नहीं रखती हैं।
"सात नदियाँ एक समन्दर" में ईरान की वेश्याओं के बारे में खालिद अपनी पत्नी से कहता है - ""ईरान तबाह हो रहा है..... पैरिस में ईरान वेश्याओं से मिलोगी? शाम को ले चलता हूँ पेरिस के उन इलाकों में, जहाँ पैसा ही हकीकत है।.... उन लड़कियों से पूछना कि पेट कितना जालिम होता है। जान कितनी प्यारी होती है।""36 यहाँ यह स्पष्ट हो उठता है कि शरीर बिक्री करने के व्यवसाय में जुड़ना उन युवतियों की मजबूरी थी।
"पारिजात" में भी रंड़ियों यानी अपनी शरीर बिक्री करनेवालों की विवशता के संबन्ध में बताया गया है - ""दर असल यह शरीफ़ घरों की औरतें थीं, जो छुपाकर पेट की आग बुझाने और खानदान पालने के चलते बेहद मजबूरी की हालत में यह कदम उठाती थीं। यहाँ भी दलाल होते, मगर इनके यहाँ आनेवाले ज़्यादातर अच्छे ख़ानदान के जवान होते, जिन्हें सिर्फ जिस्म की जरूरत पूरी करनी होती। इनको गाने-बजाने, अदब और आदाब का वह फ़न नहीं आता था जो डेरेदार तवायफ़ों या रंडियों का हिस्सा था।""37 यहाँ अपने तन को बेचती रंडियाँ या तवायफ़ें निचले और गरीब घर की औरतें हैं। आर्थिक अभाव ने ही उन्हें यह घृणात्मक काम करने के लिए विवश किया है।
कुछ औरतों की जिन्दगी में आयी दुर्घटनाएँ ही उन्हें शारीरिक भूख मिटाने के लिए मज़बूर करती हैं। "बेहिश्ते ज़हरा" की अख्तर बदसूरत है। अपनी शारीरिक भूख बुझाने के लिए ही वह इस रास्ते में आयी है। कई मर्दों का आना-जाना शु डिग्री हुआ। ""उसको सन्तुष्टि है कि बदसूरत होने के बाद भी सबसे हसीन मर्दों के साथ उसके सम्बन्ध अपने आप बन गये। वह किसी के आगे झुकी नहीं, टूटी नहीं, गिड़गिड़ाई नहीं बल्कि खुबसूरत हाथों आगे बढ़ कर उसका आलिंगन किया। .....वह किसी से जुड़ भी न सकी, शायद मर्द के स्पर्श की भूख इतनी थी कि वही उसके अहसास की माँग बन गई थी।""38 उपन्यास में शरीर बिक्री का और एक बीभत्स और अविश्वसनीय घटना का उल्लेख भी है। भूख मिटाने के लिए खुद मानव शरीर को ही गोश्त बनाकर बेचते हैं। ""सनोबर ने घबरा कर आँखें झपकाई, क्या वह जो देख रही है सही देख रही है..... मशीन पर एक इन्सानी धड़ अर्थात् ईरानी बदन तौला जा रहा था... पीछे से कोई कहता, ""आगे बढ़ो जल्दी चलो। ईरानी फ्रण्टियर गोश्त शाप" पर, वहाँ सस्ता गोश्त मिलेगा"" सनोवर ने मुड़ कर देखा तो मोटे मोटे लाल चेहरे वाले बड़ा-सा थैला ले कर आगे बढ़ रहे थे।""39 कहानी की तरह लगती यह सच्चाई ईरान की युद्ध भूमी की है। आर्थिक अभाव और महँगाई के कारण गरीबों को अपनी भूख मिटाने के लिए खुद मनुष्य का ही शरीर खाना पडता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि शरीर विक्रय के पीछे आर्थिक अभाव या गरीबी ही नहीं बल्कि शारीरिक भूख भी कारणभूत तत्व है।
सहायक ग्रन्थ सूची
1. डॉ. पुष्पा जानकर - रचनाकार रेणु, सं. 1992, पृ. 54-55
2. नासिरा शर्मा - शाल्मली, सं. 1987, पृ. 23
3. नासिरा शर्मा - अक्षयवट, सं. 2003, पृ. 393
4. नासिरा शर्मा - शब्द पखेरू, सं. 2017, पृ. 24
5. नासिरा शर्मा - ठीकरे की मंगनी, सं. 1987, पृ. 44
6. वही, पृ. 44
7. नासिरा शर्मा - ज़ीरो रोड़, सं. 2008, पृ. 174
8. वही, पृ. 151
9. नासिरा शर्मा - ठीकरे की मांगनी, सं. 1989, पृ. 89
10. वही, पृ. 89
11. नासिरा शर्मा - सात नदियाँ एक समन्दर, सं. 1995, पृ. 192
12. वही, पृ. 330
13. नासिरा शर्मा - कुइयाँजान, सं. 2005, पृ. 10
14. नासिरा शर्मा - कागज़ की नाव, सं. 2014, पृ. 165
15. नासिरा शर्मा - शब्द पखेरू, सं. 2017, पृ. 92
16. नासिरा शर्मा - जिन्दा मुहावरे, सं. 1994, पृ. 122
17. नासिरा शर्मा - अजनबी जज़ीरा, सं. 2012, पृ. 23
18. वही, पृ. 24
19. नासिरा शर्मा - कुइयाँजान, सं. 2005, पृ. 269
20. नासिरा शर्मा - बहिश्ते ज़हरा, सं. 2009, पृ. 211
21. डॉ. झेड एम. जंघाले - रामदरेश मिश्र जी के उपन्यासों में यथार्थ, सं. 2009, पृ. 188
22. डॉ. प्रकाश शरंराव चिकुर्डेकर - रामदरश मिश्र के उपन्यासों में समाज जीवन, सं. 2002, पृ. 236
23. नासिरा शर्मा - कागज़ की नाव, सं. 2014, पृ. 103
24. नासिरा शर्मा - अजनबी जजीरा, सं. 2012, पृ. 48
25. डॉ. एम. फिरोज खान - ज़ीरो रोड एक अध्ययन, सं. 2011, पृ. 37
26. नासिरा शर्मा - ज़ीरो रोड़, सं. 2008 - पृ. 91
27. कैलाशनाथ गुप्त - मानवाधिकार और उनकी रक्षा, सं. 2004, पृ. 37
28. नासिरा शर्मा - अक्षयवट, सं. 2003, पृ. 48
29. नासिरा शर्मा - ज़ीरो रोड़, सं. 2008, पृ. 165
30. वही, पृ. 335
31. नासिरा शर्मा - शब्द पखेरू, सं. 2017, पृ. 69
32. डॉ. मारुती सिंदे - हिन्दी उपन्यासों में चित्रित वेश्या जीवन, सं. 2004, पृ. 39
33. समरेन्द्र सिंह - हंस, जनवरी-फरवरी 2000, पृ. 170
34. नासिरा शर्मा - सात नदियाँ एक समन्दर, सं. 1995, पृ. 195
35. नासिरा शर्मा - पारिजात, सं. 2014, पृ. 310
36. नासिरा शर्मा - बहिश्ते ज़हरा, सं. 2009, पृ. 57
37. वही, पृ. 69
Keywords:
नासिरा शर्मा- आर्थिक- यथार्थ- समाज- पारिवारिक- समस्याएं - उपन्यास
Cite Article:
"नासिरा शर्मा के उपन्यासों में अभिव्यक्त आर्थिक यथार्थ", International Journal of Science & Engineering Development Research (www.ijrti.org), ISSN:2455-2631, Vol.8, Issue 10, page no.325 - 328, October-2023, Available :http://www.ijrti.org/papers/IJRTI2310045.pdf
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ISSN:
2456-3315 | IMPACT FACTOR: 8.14 Calculated By Google Scholar| ESTD YEAR: 2016
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