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प्राणी जगत ही नहीँ वरन् वनस्पति और प्रकृति जैसी अर्थशून्य वस्तुओं को रचनाकारों ने भावों से मंडित कर उसकी सार्वभौमिक शाश्वत विधमानता को स्वीकार किया है । भाव एक भाषा है, जिसे चित्रकार अपने रंगों व तूलिका के माध्यम से चित्रों में प्रस्तुत करता है । भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार भाव से ही रस की अनुभूति होती है । भरतमुनि द्वारा आठ स्थायी भावों तथा रसों का उल्लेख किया गया है । कला में अभिव्यंजना प्रधान होती है और अभिव्यंजना भाव का आवश्यक गुण है । भावों की अभिव्यंजना हेतु कला अपनी भाषा ( माध्यम , शैली व तकनीक ) का प्रयोग करती है । इन कला तत्वों द्वारा सृजित रूप तथा उस रूप का अर्थसार या विषय - वस्तु भी अभिव्यक्ति के दायरे में आते हैं । इस प्रकार चित्र में विषय के आधार पर ही भावाभिव्यंजना होती है , परन्तु चित्र निर्माण में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग करने वाले कला तत्वों , माध्यमों , तकनीकों , भावों , प्रतीकों तथा अन्य उपादानों का पूर्ण योगदान होता है । प्रस्तुत शोध पत्र में भारतीय चित्रकला में भावाभिव्यंजना हेतु प्रयुक्त विविध रेखाओं, रूपों, वर्णों, तानों ,पोतों, अंतरालों , अलंकरणों , सादृश्यों तथा प्रतीकों आदि कला - तत्वों का विस्तृत वर्णन किया गया है ।
"भारतीय चित्रकला में भावाभिव्यंजना ", International Journal of Science & Engineering Development Research (www.ijrti.org), ISSN:2455-2631, Vol.1, Issue 3, page no.106 - 112, December-2016, Available :http://www.ijrti.org/papers/IJRTI1612018.pdf
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ISSN:
2456-3315 | IMPACT FACTOR: 8.14 Calculated By Google Scholar| ESTD YEAR: 2016
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