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संस्कृत की इस विकसित महाकाव्य परम्परा का सफल प्रतिनिधित्व हमें कालिदास और अश्वघोष के बाद भारवि की कृति मंे मिलता है। भारवि की कवित्वकीर्ति को अक्षुष्ण बनाये रखने वाला उनका एकमात्र ग्रन्थं ‘‘किरातार्जुनीयं’’ है। जिसकी गणना संस्कृत की बृहत्त्रयी (किरात, माघ, नैषध) मंे की गई है। भारवि का यह महाकाव्य अपना अलग स्थान रखता है। इस महाग्रन्थ मंे काव्यशास्त्रोक्त नियमों का पूर्णतया निर्वाह हुआ है। भारवि का व्यक्तित्व दर्शन सर्वथा स्वतंत्र प्रतीत होता है। इसका बड़ा भारी कारण यह है कि भारवि ने वीर रस का बड़ा ही हृदश्ग्राही चित्रण औश्र अंलकृत काव्यशैली का सफल वर्णन किया है। ‘‘अर्थ गौरव’’ भारवि की सबसे बड़ी विशेषता है।
भारवि मुख्य रूप से कलावादी कवि है। जिनका ध्यान काव्य के बहिरड्ंग पर अधिक रहा है। अर्थपक्ष मंे गम्भीरता तथा सार्वजनीकता का निवेश भी उन्होनें किया है। चित्रकाव्य का प्रयोग करने वाले वे प्रथम संस्कृत कवि है। कृत्रिम भाषा का प्रयोग करते हुए उन्होनें यह प्रकट किया है कि संस्कृत काव्य कितना दुरूह हो सकता है। किन्तु ऐसी शब्द क्रीडा उनके काव्य मंे सीमित है। भारवि वैदर्भी रीति के कवि है। जिसमें अल्पसमासों का प्रयोग होता है। पाण्डित्य प्रदर्शन की प्रवृति भी भारवि मंे बहुत अधिक है। इस समस्त कृत्रिमता के मध्य उनमें भावों को अभिव्यक्त करने की अद्भुत क्षमता है। जो सामान्य स्थलों में विपुल रूप से प्राप्त होती है। भावों के अनुसार उन्होनें काव्य कला का प्रयोग किया है।
अर्थगौरव से पूर्ण सामान्य उक्तियों से प्रासाद गुण है तो चित्रात्मक वर्णनों मंे ओजगुण के प्रयोग मंे भी कवि को संकोच नहीं है। उनके अलंकारो और छन्दों का निवेश भी कवि ने भावों की आवश्यकता के अनुरूप ही किया है। इनकी शैली के विषय में जितना अन्य विद्वानों ने कहा है उससे न्यूनतर स्वयं भारवि ने नहीं कहा। इससे प्रकट होता है कि कवि अपनी भाषा शैली के प्रति पूर्ण जागरूक है।
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Cite Article:
"महाकवि भारवि के काव्य का साहित्यक वैशिष्ट्य", International Journal of Science & Engineering Development Research (www.ijrti.org), ISSN:2455-2631, Vol.9, Issue 7, page no.369 - 371, July-2024, Available :http://www.ijrti.org/papers/IJRTI2407043.pdf
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ISSN:
2456-3315 | IMPACT FACTOR: 8.14 Calculated By Google Scholar| ESTD YEAR: 2016
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