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भारत के गाँवों की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था मे ं पंचायतो की भूमिका हमेषा ही महत्वपूर्ण रही है ।प्राचीन काल से ही पंचायतें किसी न किसी रूप में विद्यमान थी। स्वंत्रता प्राप्ति के पष्चात् भारत का नया संविधान बना किन्तु उसके मू लप्रारूप मे पंचायतों का प्रावधान नही था। राज्य व्यवस्था के संदर्भ मंे गांधीजी ने यह स्पष्ट रूप से व्यक्त किया था कि निचले स्तर पर पंचायतों को रखना होगा, अन्यथा उच्च और मध्य का तंत्र गिर जाएगा और उनके विचार के अनुरूप देष मे गांवो को स्वावलम्बी और आत्मनिर्भर बनाने के लिए पंचायतों को आधारषिला मान गया था। पंचायतों की वैचारिक अवधारणा के रूप में ही उन्होने ‘ग्राम गणतंत्र’ की परिकल्पना पर बल दिया था। पंचायत पर गांधीजी के विचार का संविधान निर्माण के क्रम में संविधान सभा मे चल रही बहस मे विषद चर्चा हुई थी और पंचायत की सार्थकता पर व्यापक समर्थन मिला था। तदुपरान्त संविधान सभा के सदस्य के संथानम ने पंचायत के प्रावधान हेतु एक संषोधन प्रस्तुत किया जिसके आधार पर भारतीय संविधान के राज्य नीति निर्देषक तत्व के अनुच्छेद 40 में पंचायतों के संबंध में एक संक्षिप्त उल्ले ख को सम्मिलित किया गया ज्ञातव्य है कि नीति निर्देषक तत्व के अन्तर्गत सभी प्रावधानों को लागू करने हेतु केन्द्र और राज्य सरकारों पर कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं होती है। पंचायतों के संबंध में संविधान के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 40 मे ंजिस संक्षिप्त प्रावधान का उल्लेख है वह निम्नलिखित हैः ‘‘राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनको ऐसी षक्तियाँ और अधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त षासन इकाईयों के रूप मे कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवष्यक हो’’।
ब्रिटिष काल मंे भी भारत के गांवो में ग्राम पंचायतें, जाति पंचायतें और व्यवसाय से संबंधित पंचायतें कार्यरत रही। उस दौर में अंग्रेजों द्वारा समस्त व्यवस्थाओं को वैधानिक स्वरूप में ढाला जाने लगा। सन् 1859 में पुर्तगाल क्षेत्र गोआ में पार्टेरिया नं. 7575 नामक कानून के द्वारा ‘‘जुण्टा फ्रेग्वेषिया’’ नामक स्थानीय स्वषासन संस्थाएं गठित होने लगी। सन् 1870 में बंगाल में ‘चौकीदारी अधिनियम’’ पारित हुआ। भारत मे स्थानीय स्वषासन संस्थाओं का मैग्नाकार्टा कहलाने वाला प्रस्ताव सन् 1882 मंे लॉड ‘रिपन द्वारा लाया गया। इसमें ग्राम पंचायतों, न्याय पंचायतों तथा जिला बोर्डो के गठन का प्रावधान था। इस क्रम में पहला प्रयास मद्रास लोकल बॉडीज एक्ट 1884 के रूप में सामने आया। ऐसे ही कानून अन्य राज्यों में भी बनने लगे।
स्वतंत्रता के पष्चात् 2 अक्टूबर 1952 को सामुदायिक विकास कार्यक्रम लागू किया गया, किन्तु यह कार्यक्रम ग्रामीण अंचलों मे सफलता प्राप्त नहीं कर सका। इसी क्रम में विफलता के कारणों को जानने एवं नयी रणनीति सुझाने हेतु बलवंत राय मेहता समिति गठित की गई।
2 अक्टूबर 1957 को केन्द्र सरकार द्वारा बलवंत राय मेहता समिति गठित की गई। इस समिति की रिपोर्ट में इस बात की सिफारिष की गई कि सरकार को ग्रामीण क्षेत्र के विकास के लिए संस्थाएं गठित कर विकास का सारा कार्य इनको सौंप दिया जाना चाहिए इसके अंतर्गत जनता द्वारा चुने गए स्थानीय स्वषासन के तीन ढाँचे की व्यवस्था की गई निचले स्तर पर अर्थात् ब्लॉक मे पंचायत समिति और सर्वोच्च स्तर पर यानि जिले मे जिला परिषद।
सर्वप्रथम 2 अक्टूबर, 1959 को राजस्थान मे पंचायती राज की नई त्रिस्तरीय प्रणाली की षुरूआत हुई यह उल्लेखनीय है कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 2 अक्टूबर, 1959 को नागौर राजस्थान मे बलवंत राय मेहता समिति की अनुषंसाओं पर आधारित त्रिस्तरीय पंचायती राज के उद्घाटन भाषण मे कहा था- ‘‘हम लोग अपने देष मे लोकतंत्र अथवा पंचायती राज की आधारषिला रखने जा रहे है यदि महात्मा गांधी अपने बीच होते तो कितने प्रफुल्लित होते। यह एक एतिहासिक कार्य है और इससे उनको बड़ी प्रसन्नता होती कि यह ऐतिहासिक कदम उनके जन्म-दिवस पर उठाया गया’’ राजस्थान के बाद आन्ध्र प्रदेष मे पंचायती राज लागू हुआ। फिर 1960-61 तक राज्यों मे अधिनियम बना और पंचायती राज की विधिवत षुरूआत हुई। केन्द्र में प्रथम बार गैर कांग्रेसी जनता पार्टी सरकार के सत्तारूढ होते ही एक बार पुनः ‘ग्राम राज’ की मांग बलवती होने लगी। पंचायतीराज संस्थाओं की दुर्दषा को देखते हुए यह आवष्यक था कि इन्हें पुनर्जीवन प्रदान किया जाए। इसी क्रम में मंत्रिमण्डल सचिवालय के प्रस्ताव द्वारा 12 दिसम्बर, 1977 को अषोक मेहता समिति का गठन किया गया। समिति ने अपनी रिपोर्ट ;1978 में उल्लेख किया है ‘‘पंचायती राज उतार-चढ़ाव की कहानी है, ऐसा प्रतीत होता है कि यह तीन अवस्था से गुजरा है- आरोहण की अवस्था ;1959-64, तक निष्क्रियता की अवस्था ;1965-69, और अवनति की अवस्था ;1969-77,’’ अषोक मेहता समिति ने अपनी रिपोर्ट में पंचायती राज की अवनति के चार मुख्य कारणों का उल्लेख किया है।
प्रथम, चतुर्थ पंचवर्षीय योजना की अवधि में कई तरह के लक्ष्य समूहों से संबंधित विभिन्न योजनाओं हेतु नई सरकारी ऐजेन्सियों का जिला स्तर पर सृजन किया गया और सभी को निर्वाचित जिला परिषद के क्षेत्राधिकार से बाहर रखा गया। नतीजन पंचायती राज को ऐसे वित्तीय अनुदान से वंचित रहना पड़ा।
दूसरा, राजनेताओं का पंचायती राज संस्थाओं को षक्तिषाली बनाने के प्रति कोई उत्साह नहीं था। कुछ राज्यों में तो पंचायती राज संस्थाएँ भंग थी और नए चुनाव को लम्बे अर्से तक टाल दिया गया था।
तीसरा, पंचायती राज की वैचारिक अवधारणा के संबंध मे कोई स्पष्ट चित्र नहीं था। कुछ लोग इसे सरकारी एजेन्सी मानते थे, कई इसे लोकतंत्र का विस्तार, और कुछ व्यक्तियों ने इसे स्थानीय षासन की संस्थाऐं माना था।
चौथा, पंचायती राज संस्थाओ पर आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टि से सम्पन्न व्यक्तियों का वर्चस्व था, अतः आम ग्रामीण के लिए इन संस्थाओं की उपयोगिता घट गई थी। इन त्रुटियों के बावजूद अषोक मेहता समिति ने इस बात का उल्लेख किया था कि ग्रामीण विकास हेतु जहाँ भी इसे जिम्मेदारी सौंपी गई वहाँ अच्छा काम हुआ था। महाराष्ट्र और गुजरात मे इस दिषा में सफल प्रयास हुआ था। अतः पंचायती राज को असफल मानना, इसका सही आकलन नहीं होगा।
अस्सी के दषक मे पष्चिमी बंगाल, कर्नाटक और आन्ध्रपदेष की नवगठित सरकारों की पहल पर पंचायती राज का पुनः उदय हुआ। पष्चिम बंगाल मे 1977 में ज्योति बसु के नेतृत्व मे आई वामपंथी सरकार ने राज्य के पुराने पंचायत अधिनियम 1972 के आधार पर ही 1978 मे पंचायती राज संस्थाओं का चुनाव करवाकर इन संस्थाओं को विकास कार्यक्रम, साक्षरता अभियान और भूमि सुधार के कार्यो को सौंपा, उस समय से निरन्तर हर पांच वर्ष की कार्य अवधि पर पष्चिम बंगाल में पंचायतों का चुनाव सम्पन्न हो रहा है। इसी तरह 1983 मे कर्नाटक में रामकृष्ण हेगड़े के नेतृत्व में आई जनता पार्टी सरकार ने 1985 में पंचायती राज पर अषोक मेहता समिति के कुछ सुझावों को स्वीकार कर नया पंचायत अधिनियम बनाया और उसी आधार पर 1987 में वहाँ चुनाव सम्पन्न हुआ। इस अधिनियम ने कमजोर वर्गो, अनुसूचित जाति और जनजाति के पर्याप्त प्रतिनिधित्व हेतु 18 प्रतिषत सदस्यों का स्थान आरक्षित किया और महिलाओं की सदस्यता हेतु यह प्रतिषत स्थानों पर आरक्षण का प्रावधान रखा गया था। इसी तरह आन्ध्र प्रदेष मे 1983 में एन.टी. रामराव के नेतृत्व मे आई तेलगू देषम् पार्टी में 1986 में पंचायती राज पर नया अधिनियम बनाया जिसका ढाँचा कनार्टक के तर्ज पर था। कमजोर वर्गो और महिलाओं की सदस्यता के साथ-साथ अध्यक्षों के स्थानों हेतु भी आरक्षण का प्रावधान आन्ध्र प्रदेष के नए अधिनियम मे रखा गया।
पंचायती राज के विकास में क्रांतिकारी पहल मई 1989 में हुई जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने पंचायती राज पर 64 वाँ संविधान संषोधन विधेयक संसद में प्रस्तुत किया। इस विधेयक ने पंचायती राज को संविधान द्वारा बाध्यकारी विषय बना दिया गया और इसक स्थायित्व हेतु हर वर्ष पर चुनाव कराना राज्य के लिए बाध्यकारी कर दिया गया। नतीजन उक्त विधेयक लोकसभा में पारित हो गया। किंतु सत्तारूढ़ कांग्रेंस का राज्यसभा में दो-तिहाई बहुमत नहीं रहने के कारण उस सदन में यह विधेयक पारित नहीं हो सका। पुनः कांग्रेस के नरसिंह राब सरकार के समय 73वें संविधान संशोधन के चुनाव रूप में पंचायती राज पर एक नया विधेयक 29 दिसम्बर, 1992 को लोकसभा में और 23 दिसम्बर, 1992 को राज्यसभा में भारी बहुमत से सर्वानुमति के करीबद्ध पारित हुआ। इस बात में हमेशा ही माना जाएगा कि पंचायती राज को संवैधानिक मान्यता देकर मजबूत बनाने की दशा में स्वर्गीय राजीव गांधी की अहम भूमिका थी द्य 73वें संविधान संशोधन का उद्गम राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में प्रस्तुत किया गया 64वां संविधान संशोधन विधेयक ही था।
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Cite Article:
"भारत में पंचायती राज का वर्तमान स्वरूप : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन", International Journal of Science & Engineering Development Research (www.ijrti.org), ISSN:2455-2631, Vol.7, Issue 4, page no.108 - 112, April-2022, Available :http://www.ijrti.org/papers/IJRTI2204019.pdf
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ISSN:
2456-3315 | IMPACT FACTOR: 8.14 Calculated By Google Scholar| ESTD YEAR: 2016
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